—-ए.एफ़'नज़र'
सुभाष पाठक 'ज़िया' ग़ज़ल के शाइर है। ग़ज़ल इशारे में बात करती है और इबहाम उसके मूल में होता है अत: ग़ज़ल वो आइना है जो बुरे सच की तस्वीर भी ख़ूबसूरती से पेश करता है। उनकी ग़ज़लों में पहली नज़र में आकर्षित करने वाला तत्व शब्द-चयन और वाक्यों की संरचना है जिसमें भरपूर संगीतीय अनुकूलता और कोमलता है, जो परम्परागत क्लासिक अन्दाज़ से प्रेरित किन्तु इन्फ़रादी है। अलहदा रदीफ़ों का बख़ूबी निबाह, कहीं-कहीं अंग्रेज़ी शब्दों या रोज़मर्रा के अल्फ़ाज़ का ख़ूबसूरती से किया गया इस्तेमाल पाठक को आल्हादित कर देता है।
मैं जब ग़ज़ल को तसव्वुर करता हूँ तो महसूस करता हूँ कि तमाम फ़िक्रों की शाख़ों पर ख़यालों के गुंचे खिल उठे हैं। सहराओं के कंटीले दरख़्तों पर नई कोंपलें फूट पड़ी हैं। ग़ज़ल पहली बारिश की वो सौंधी ख़ुशबू हैं जो गर्म रुतों की दुश्वारियों को अपनी आमद से दिलफ़रेब और ख़ुशमंज़र बना देती है।....................सुनते तो ये आए हैं कि ये हुनर आते-आते ही आता है और एक उम्र भी कम है।'' सुभाष पाठक 'ज़िया' का उनके दूसरे ग़ज़ल संग्रह ''तुम्ही से ज़िया है'' में दिया गया यह वक्तव्य इस बात की दलील है कि वह ईमानदार शाइर हैं और अपनी ख़ूबियों और कमियों से वाकि़फ़ है।
सुभाष पाठक 'ज़िया' ग़ज़ल के शाइर है। ग़ज़ल इशारे में बात करती है और इबहाम उसके मूल में होता है अत: ग़ज़ल वो आइना है जो बुरे सच की तस्वीर भी ख़ूबसूरती से पेश करता है। उनकी ग़ज़लों में पहली नज़र में आकर्षित करने वाला तत्व शब्द-चयन और वाक्यों की संरचना है जिसमें भरपूर संगीतीय अनुकूलता और कोमलता है ,जो परम्परागत क्लासिक अन्दाज़ से प्रेरित किन्तु इन्फ़रादी है। अलहदा रदीफ़ों का बख़ूबी निबाह, कहीं-कहीं अंग्रेज़ी शब्दों या रोज़मर्रा के अल्फ़ाज़ का ख़ूबसूरती से किया गया इस्तेमाल पाठक को आल्हादित कर देता है। ज़िया परिस्थितिजन्य द्वन्द्वों के शाइर है यह द्वन्द्व उनके प्रेमपरक ग़ज़लों और सामाजिक सरोकार की ग़ज़लों दोंनों में ही दृष्टिगत होता है। दिल धड़कता है की ग़ज़लों से गुज़रते हुए महसूस होता है कि उनकी अधिकांश ग़ज़लों में प्रेमपरक भावनाओं की अभिव्यक्ति है और प्रेम की समग्र रूप से जो तस्वीर उभरती है कुछ इस प्रकार है कि कॉलेज के ज़माने में उम्र के चढ़ते पड़ावों पर एक लड़का-लड़की एक दूसरे से मिलते हैं, क़रीब आते हैं और साथ जीने मरने की क़समें खाते हैं। पढ़ाई पूरी होने पर जब अलग होते है तो दिलों में हसीन यादें लिए अपने -अपने रास्तों पर गामज़न हो जाते हैं, न कोई गिला-शिकवा न दोबारा मिलने के वादे। दोनों जानते हैं कि वे दोबारा कभी नही मिल सकेंगे और दोनों ने इस सच को स्वीकार भी कर लिया है। वस्ल या तो माज़ी की यादों में हैं या कभी पूरी न होने वाली तमन्ना है। आशिक़ और माशूक़ दोनों इन्तज़ार के अनंत मरूस्थल के दोनों विपरीत छोरों पर खड़े हैं। यही इन्तज़ार अब उन्हें प्रिय है, इस प्रेम कहानी में वक़्त या हालात के सिवा कोई रक़ीब नहीं है। दीवानगी में भी वह होश और ख़िरद का दामन नहीं छोड़ते । माशूक़ हसीन, बेवफ़ा, बेपरवाह, बदगुमान और आशिक़ के ग़म से नावाकि़फ है।
आशिक़ के किरदार में सर्वाधिक द्वन्द्व है उसके मिज़ाज में जहाँ अनन्य प्रेम है तो आज़ाद मिज़ाजी भी। समर्पण और अना परस्ती, आस्था और अनास्था, कर्मवाद और भाग्यवाद का द्वन्द्व है।
बाद दसके चराग़ लौ देगा,
पहले इक लौ चराग़ तक पहुँचे।
या
क्यों ज़माने को बेवफ़ा कहिए,
इसको कि़स्मत का फ़लसफ़ा कहिए।
''तुम्ही से ज़िया है'' की ग़ज़लों में भावनात्मकता चिन्तनोन्मुखता की ओर अग्रसर हुई हैं। बहरों के चयन में न केवल विविधता है, बल्कि लम्बी बहरों को भी बख़ूबी निभाया है। ग़ज़ल का हिंदी में आना अहम और उल्लेखनीय घटना है जिसने ग़ज़ल के मुताल्लिक़ दृष्टि और विमर्श के अनेक नए ज़ाविए खोल दिए हैं। मेरा मानना है कि शाइरी मआशरे से दो लेबल पर जुड़ी होती है एक कि शायर समाज में रहता है और उससे मुतास्सिर होता रहता है जिससे शायरी भी मुतास्सिर होती है। दूसरे जब शाइर अपनी शाइरी किसी दूसरे के साथ शेयर करता है, दाद चाहता है या चाहता है कि वह लोगों पर असर करे तो यह पूरी तरह सामाजिक अमल होता है। इसलिए ज़रूरी है कि कोई शाइरी समाज को नुकसान पहुँचाने वाली कदापि नही हो। कोई शाइरी इसलिए बेहतरीन नही होती कि वह उर्दू में, कही गई है या अंग्रेज़ी में कही गई है बल्कि इसलिए अज़ीम होती है कि उसमें आला दर्जे के शाइराना एलीमेंट्स (काव्य तत्व) होते हैं।
आधुनिक काव्य के मानकों के मददेनज़र पड़ताल करें तो हम पाते हैं कि ज़िया की शाइरी पर अस्तित्वाद व अन्य आधुनिक चिन्तनों का व्यापक प्रभाव है और समकालीन कविता की तमाम प्रवृत्तियाँ कमोबेश उनके यहीँ पाई जाती है। मिसाल के तौर पर कुछ अशआर प्रस्तुत हैं जो विभिन्न प्रवृत्तियों के हामिल है-
इल्म ही है जो तेरा अपना है,
घर मकाँ कल तो और का होगा।
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सब गुज़रते है मेरे सीने से,
मैं हूँ इक पायदान चौखट का।
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आसमानों ज़मीं की बात ही क्या,
सारा आलम उदास है मेरा।
ये घड़ी दो घड़ी की बात नहीं,
वक़्त पैहम उदास है मेरा।
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ज़मीं दिल के हसीं रिश्तों की बंजर हो गई अब तो,
नदी मेरे ग़मों की भी समन्दर हो गई अब तो।
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गुज़र ही गया दर्दे दिल हद से आख़िर,
कि अब दर्द क्या आँख भी नम नहीं है।
ज़िया की ग़ज़लों में ग़म स्निग्ध है, लगता है ग़मों की गहरा रंग दूर तक फैला हुआ है और वो उसे भरपूर जीते हैं, शालीनता से अभिव्यक्त करते हैं , अपने परिवेश को यकायक बदल देने की जल्दी में नहीं हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वो इस सच को आत्मसात कर चुके हैं कि ग़म ज़िदगी का अभिन्न हिस्सा है और यह बड़ी बात है।
चलो आइने से मिलो और ख़ुद को निहारो संवारो तुम्ही से ज़िया है,
थकन को उतारो न यूँ थक के हारो वफ़ा के सितारो तुम्ही से ज़िया है।
ज़िया ग़ज़ल में पारम्परिकता और कविता की आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता का कितना अथवा किन विशिष्टताओं के साथ निर्वाह कर सके हैं यह अलग विमर्श है लेकिन उनके बार में एक बात स्पष्टता से कही जा सकती है कि वो ग़ज़ल की उम्मीद हैं और उनको आगे के सफ़र के लिए मैं हार्दिक मंगलकामनाएँ पेश करता हूँ।
लेखिका : -ए.एफ़'नज़र'
पुस्तक - 'तुम्हीं से ज़िया है' (ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार- सुभाष पाठक 'ज़िया'
समीक्षक - ए. एफ 'नज़र'
प्रकाशन - अभिधा प्रकाशन
मूल्य 300